Sunday, 9 November 2014

छिपाया मैंने क्यूँ कर राजे उल्फत

छिपाया मैंने क्यूँ कर राजे उल्फत, कोई क्या जाने I
ये क्या फ़ितने जगाती है मुहब्बत, कोई क्या जाने I

निगाहें सब की उठती हैं फ़क़त मेरे गुनाहों पर,
मगर क्या क्या हुई है मुझपे रेहमत, कोई क्या जाने I

बहुत रोका ज़माने ने, न जा तू उनकी महफ़िल में,
मेरी उस देर पे मर मिटने की हसरत, कोई क्या जाने I

है दिल की धड़कनें उनकी, कि इक इक साँस भी उनकी,
कि है ये जिंदगी उनकी अमानत, कोई क्या जाने I

सुराही हाथ में, होठों पे जाम और दिल में याद उनकी,
यही रिन्दों का है तर्जे-इबादत, कोई क्या जाने I

शमा पे जल के परवाना बुझा लेगा लगी दिल की,
मगर क्या है क़यामत मेरी वहशत, कोई क्या जाने I

फ़रिश्ते गिड़गिड़ा कर मांगते हैं अश्क के मोती,
लुटा दी मैंने रो रो कर वो दौलत, कोई क्या जाने I

न ले जाओ मुझे बस्ती में, वीराने में रहने दो,
बसाई थी यहीं मैंने वो जन्नत, कोई क्या जाने I

न शाहों को मिला, मुझको मिला 'दरवेश' का रुतबा
हुई है किसकी ये नज़रे-इनायत, कोई क्या जाने I 

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