Sunday, 9 November 2014

दम टूट चुका फिर भी नज़रें

दम टूट चुका फिर भी नज़रें, दर पर हैं लगी दीवाने की,
पथराई हुई आँखों में है, उम्मीद किसी के आने की I

अय शम्मा, भड़क धीरे धीरे, फिर आ न सकेंगे परवाने I
रह रह के जला, हंस हंस के मिटा, हसरत न रहे तड़पाने की I

तू सामने है फिर भी साकी, प्यासी नज़रें क्यूँ है प्यासी,
ज़ुल्फ़ों को हटा, पलकों को उठा, राहें न बता मयखाने की I

मिट्टी से उठा, गर्दिश में पड़ा, भरकर छलका पहुंचा लब पर
जब सुबह हुई टूटा गिर कर, रूदाद है ये पैमाने की I

अय शेख दमे-आखिर अब तो, पीने दे दम भर जीने दे,
कलमा न पढ़ा, फितवा न सुना, कर बात कोई बुतखाने की I

जिसकी खातिर 'दरवेश' हुए, घर फूंक दिया छोड़ी दुनिया I
वो भी न हुआ आखिर अपना, क्या पूछो बात ज़माने की I

No comments:

Post a Comment