Sunday, 9 November 2014

तू जो मयख़ान से बेगाना रहेगा, साकी !

तू जो मयख़ान से बेगाना रहेगा, साकी !
कौन मयखाने को मयखाना कहेगा, साकी ?

जाने-मयखाना है तू ज़ीनते-महफ़िल भी तू,
मय-फ़रोशों से न ये काम बनेगा, साकी !

रहम कर छोड़ दे ये तर्ज़े-तग़ाफ़ुल वरना,
सागरो-मय का कोई नाम ना लेगा, साकी !

मयकदे में तेरे इक हश्र का आलम होगा,
कोई गीता, कोई कुरआन पढ़ेगा, साकी !

दम भरेगा न कोई तुझसे रानासाई का,
अपने सर कौन ये इलज़ाम रखेगा, साकी !

हौसले शेखों-बरहमन के ज़रा देखो तो,
कह रहे थे की ये मयखाना बिकेगा, साकी !

हम तेरी राह में शोलों को पिएंगे कब तक,
कब तक आखिर न धुंआ दिल से उठेगा, साकी !

ये तो मुमकिन है कोई और कहीं भर ले जाम,
तेरा 'दरवेश' तो प्यासा ही मरेगा, साकी !

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