Thursday, 6 November 2014

वही बेगाना बन बैठा, समझते थे जिसे अपना

वही बेगाना बन बैठा, समझते थे जिसे अपना I
कोई अए काश बतलाये, कहें अब हम किसे अपना I

रकीबों ने लगाई आग, और वह देखकर चुप हैं I
अगर उनकी ख़ुशी है ये, ख़ुशी से घर जले अपना I

हमीं पर है इनायत ये, कि हम रो भी नहीं सकते I
उठा लें आस्मां सर पर, अगर कुछ बस चले अपना I

रकीबों-मेहरबां अपने, अज़ीज़ो अकरबां अपने I
बुला लेना इन्हें भी, हाँ जनाज़ा जब उठे अपना I

जिए जाते हैं आय 'दरवेश' इक झूठे बहाने पर I
कभी शायद ये मुमकिन हो कोई अपना कहे अपना I 

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