Wednesday, 5 November 2014

हमने सपने तो सजाए थे

हमने सपने तो सजाए थे, मिला कुछ भी नहीं,
ज़िंदगी ख्वाबे-परीशां के सिवा कुछ भी नहीं I

पूछते हैं हमसे वो खामोश रहने का सबब,
यूं तो कहना था बहुत, हमने कहा कुछ भी नहीं I

आज क्यूँ हम हो गए खारे - नज़र उनके लिए,
खुद से शिकवा है हमें - उनसे गिला कुछ भी नहीं I

सोचता हूँ मैं कि मेरे पास बाकी क्या रहा,
उनको शिकवा है, दिया नज़रे-वफ़ा कुछ भी नहीं I

यूं तो पी ली थी ज़रा सी, चीख उठा सारा जहाँ,
क्या इसे शर्मो-हाय, खौफे-खुद कुछ भी नहीं !

हो गया वो सब का, अय 'दरवेश' जो न होना था,
और सितम ये है वो कहते हैं कुछ भी नहीं I 

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