Sunday, 9 November 2014

ज़हरे-हस्ती ब-लबे तिश्ना पिए जाते हैं

ज़हरे-हस्ती ब-लबे तिश्ना पिए जाते हैं,
लुत्फ़ जीने में नहीं, और जिए जाते हैं I

हो न मयखानों की राहों में कहीं राह तेरी,
देरों-काबा तो मुझे दूर लिए जाते हैं I

इश्क में शिकवा-शिकायत औ' गिला, क्या मानी,
उनकी हर बात को तस्लीम किए जाते हैं I

बेखुदी शर्त नहीं, महवे-नज़ाराँ के लिए,
होश रहता है,मगर होठ सीए जाते हैं I

बख्श देते हैं, वो खुशियां तो सभी को 'दरवेश',
गम के लम्हात फकीरों को दिए जाते हैं I 

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