Friday, 7 November 2014

दिल मैं सोया हुआ हर ज़ख्म उभारा मैंने

दिल मैं सोया हुआ हर ज़ख्म उभारा मैंने
जब तेरी याद को अश्कों से निखरा मैंने I

सागरों-मय की कसम, छोड़ दिए दैरो-हरम
पा के मखमूर निगाहों का इशारा मैंने I

डगमगाते हुए क़दमों से दिया है अक्सर
लड़खड़ाते हुए ईमां को सहारा मैंने I

पाये साकी पे नबी रख के बसद शौक-नयाज़
अपनी बिगड़ी हुई किस्मत को संवारा मैंने I

छा गया जिंदगी-ऐ-तल्ख़ पे जब गम का सरूर I
कर लिया हर ख़ुशी-औ-गम से किनारा मैंने I

आग सीने मैं लगी खाक हुए काल्बो-जिगर
शौला-ए-तूर को शीशे मैं उतारा मैंने I

अब भी टूटे हुए सागर से ये आती है  सदा
तुमको 'दरवेश' कई बार पुकारा मैंने I 

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