Thursday, 6 November 2014

शम्मा रौशन न हुई, दूर अँधेरा न हुआ

शम्मा रौशन न हुई, दूर अँधेरा न हुआ I
देखता रह गया बीमार, सवेरा न हुआ I

सोज़े पिनहा, गमे हिज़्रा, दिले नादां की कसम,
जिसको सीने में बसाया वही मेरा न हुआ I

बार बार आई, मगर लौट गई आ आ कर,
दो पलक नींद का पलकों में बसेरा नहीं हुआ I

मुन्तजिर  कबसे है इक मुज़दा के ऐ बादे सबा
पर कभी गौरे-गरीबां तेरा फेरा न हुआ I

जाने क्या बात है उस बज़्म में अक्सर 'दरवेश'
ज़िक्र औरों का हुआ पर कभी मेरा न हुआ I 

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