Saturday, 12 August 2023



दरवेश जब किया, तो किया इक गुनाह और
क्या जाने किस गुनाह पर रहमत मचल गई .

तौबा में गुनाह किया, मैने किया नहीं
तेरे करम बेपनाह, दिया तूने क्या नहीं ?

मुझ से हजार होंगे तेरी बज़्म में मगर
जिससे न तुझ सिवा हो, वो मेरे सिवा नहीं.

लाज़िम है क्या कि मैं ही कहूं अपने दिल की बात
जाहिर है मुझ पे खूब, वो तुझ से छिपा नहीं.

कहने को था, कहा भी, मगर कैसे अब कहूं ?
कि कैसे तुमने हां कहा, कैसे कहा नहीं.

क्या हाल पूछते हो, दमे वस्ल ए हबीब
सब्रो करार कल्ब को, मेरे रहा नहीं.

आंखो में उनके नूर था, चेहरा था पुर जलाल
इतना तो मुझको याद है, इसके सिवा नहीं.

दरवेश बात हो न सकी, दिल में रह गई
सुनते तो वो जरूर पर कहते बना नहीं.

Monday, 10 November 2014

श्रद्धांजलि

 SOAMIDAS (DUA) DARVESH

23-Aug-1923 to 1-March-2005




 मेरे दद्दू .....

वह गज़लें जो बुनी गईं, तराशी गईं, कही गईं, सुनी गईं पर पिछले सत्तर सालों में उन्हें लिखा नहीं गया I वह गज़लें एक दिन किताब के रूप में सामने आएँगी ऐसा ना तो उस 'दरवेश' ने सोचा था ना ही इसकी चाहत की थी I चाहा था तो बस इतना की मेरी गज़लें उस खासो आम तक पहुंचें जिसमें इश्के हकीकी व दरवेश की फकीरी की समझ हो I उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और ब्रिज भाषा; शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक संगीत की तर्ज़ पर बनी उनकी कई गज़लें तो बस मौके पर बनी, पढ़ी गईं और सब के दिलों में छाप छोड़ के खुद मिट गईं  I अक्सर उनसे पुछा जाता कि किताब में संजो कर क्यों नहीं रखते? तो जवाब होता -

सहारा पाते हैं मौजों का, उभर जाते हैं,
पिरोये जाते हैं धागों में, संवर जाते हैं I
मगर बताये कोई, इनको क्या कहूँ 'दरवेश'
गिर के आँखों से दामन पे बिखर जाते हैं I

जिन ग़ज़लों को हमारे परिवार के सदस्यों ने लिखित शब्दों में संजो लिया था वह 'कलामे दरवेश' के इस अंक में आपके सामने है I अन्य ग़ज़लें, गीत, शेर, शब्द और धुन उनके अनेक चाहनेवालों  के दिलों में गुंजन करते हैं I

इस किताब के हर पन्ने पर लिखा हर शब्द एक दिलदार - जिंदादिल शायर के दिल से लिखा गया और उनके हर चाहनेवाले के दिल ही में बसता है I 23 अगस्त 1923  को दयालबाग़ आगरा में जन्मे स्वामीदास दुआ की किशोरावस्था से वृद्धावस्था तक की जीवनशैली  को ये पंक्तियाँ बयां करती हैं -

दरवेश-ए-कलाम फकीराना,अंदाज़े बयां शाहाना है I

इश्के मज़ाज़ी से परे रहनेवाले और इश्के हकीकी में अपना वजूद पानेवाले उस शायर की आँखों में अपनी गज़लें कहते बरबस अश्क छलक आते थे, पर माथे पे कभी शिकन ना पड़ती I वे अपने आप को फ़कीर कहते थे और तखल्लुस था 'दरवेश' I उनके बेफिक्र नूरानी चेहरे और हरदम मुस्कुराते लबों से जब गंभीर रागों के कोमल-तीव्र सुरों की पेचीदगी में बंधे सरल शब्द सुनाई पड़ते तो सीधे श्रोताओं की रूह से रूबरू होते I हर ग़ज़ल पढ़ने के बाद उसमें छिपे, कुलमालिक के प्रति अपने प्रेम भावों को जब वो सरल शब्दों में समझाते तो उनकी आँखों में अजब चमक नज़र आती I वे तरन्नुम में गाते और अपनी ग़ज़लों के रस्ते दूसरी दुनिया में पहुँच जाते I

रूहानी शायर तो वो थे ही साथ ही एक जिंदादिल इंसान भी थे I हर उम्र, हर जाति, हर व्यवसाय और हर तबके के लोग - जो उनके संपर्क में आये - 'दरवेश साहब' ने सबसे 'याराना' सुरों में संपर्क साधा I 5 साल के बच्चे से लेकर बुज़ुर्गों तक उनकी दोस्ती थी I मेरी दोनों बुआओं, बड़े पापा और पापा के लिए वे मार्गदर्शक थे पर अपने दिखाए रास्ते पर वे उनके हमकदम बन कर चले I हम चारों पोते-पोतियों और उनके चारों नाति-नतिनों के वे 'Best  Friend' थे I कभी अपनी गोद में सर रख कर हमसे लाड करते, कभी जिंदगी के छिपे पहलुओं को समझाते, कभी 'दरवेश की दौलत' (उनका प्यार और शायरी) हम पर लुटाते, तो कभी खट्टी मीठी बातों को सुर में बांध कर मस्ती भरी तान छेड़ देते I दादी को अक्सर छेड़ते -

पराठे घी के बच्चों को और सूखी रोटियां मुझको,
न जाने क्या समझती है, मेरे बच्चों की माँ मुझको I

रोज़मर्रा की जिंदगी में भी होनेवाले छोटे बड़े वाकयों से प्रेरित होकर बरबस ही उनके लबों से ख्याल लफ़्ज़ों में ढल कर फूट पड़ता था I एक बार सड़क पर एक बस के आगे आने से वे कुछ क़दमों की दूरी से बचे और कह पड़े -

दो चार कदम गर हम बढ़ते तो ठेलम ठेला हो जाता I
दुनिया होती उनके पीछे, इक में ही अकेला रह जाता I

अपने जीवन में उन्होंने सबसे प्यार किया नफरत की तो सिर्फ अमीरी से I क्यों ना करते उनके पास दौलते फकीरी थी I

में दरवेश हूँ, हाँ! हाँ! मुझे दौलत से नफरत है,
जिसके पास जाती है, वो इंसां ही नहीं रहता  I

अपने जीवन के आखरी दस सालों में उन्होंने पैसे को हाथ तक नहीं लगाया I

क्यों ना हो मुझे मुबारक मेरी दौलते फकीरी,
किसी और की नहीं ये उन्हीं की दी हुई है I

राधास्वामी सत्संग दयालबाग़ की और उनकी अटूट आस्था उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी I जिस तरह पूरे जीवन में दुनियावी मोह-माया, तेज भागती चीखती चिल्लाती जिंदगी जीने के बजाये सत्संग और शायरी के साथ शांत और सरल जीवन जिया उसी तरह शांत और सहज रूप से उनका देहावसान हुआ I 1 मार्च 2005 को प्रसन्नचित नींद में ही अपने कुलमालिक के पास चले गए I पर आज भी वो हमारे साथ हैं, पास हैं  I मेरी ऑंखें नम इसलिए हैं क्योंकि अब मैं उनकी गोद में सर रखकर उनका लाड प्यार नहीं ले सकती I पर अब भी उनका हर सुर - तान ग़ज़ल मुझे सुनाई पड़ता है I आँख बंद करते ही उका मुस्कुराता चेहरा और मेरे लिए फैली बाहें नज़र आती हैं I वो यहीं हैं, मेरे पास, मेरे दिल में I

कनिका दुआ
------------------------------------------------------------------------------------------------------------

आदरणीय फूफाजी  को समर्पित -
कितनी पूजा की कितने फूल चढ़ाये,
         घर घर अलख जगाई आमरण व्रत लिया है I
उनके घर न पहुँच सके, फिर कहा किसी ने,
        ' दरवेश साहब' ने अपना ठिकाना बदल लिया है I
                                                       - सूरज लाम्बा
------------------------------------------------------------------------------------------------------------

वो फ़कीर था शाह था या की शहंशाह ही था,
          वो जो भी था ऐलान तखल्लुस 'दरवेश' किया I

ज़िंदादिली थी ऐसी कि मरने मराने का क्या काम,
          वो तो बस यूँ ही सोया मौत को बदनाम किया I

हमको फख्र है कि हम हैं उनकी संतान,
         सहूलियतें शाहों सी दी और प्यार फकीरों सा किया I

हम थे नादाँ नालायक ये समझ ही न सके,
          जिनसे ली सेवा उन पर ही तो उपकार किया I

और बुढ़ापे में भी बचपने का वो प्यारा आलम,
         दद्दू ने पोतियों और पोतों को भी मात किया I

सुना है नात, गाकर ही बयां होती है,
          "वो गाता था बहुत अच्छा" मालिक ने ये फरमान किया I

जब अर्ज़ हुई कि दरवेश चल दिया है उधर,
         इनायतें कलम कुछ यूँ चली 'सही' निशान लग ही गया I
                                                     - ब्रह्म प्रकाश दुआ
                                                              (पुत्र)

अब ना साकी से सरोकार न पैमाने से

अब ना साकी से सरोकार न पैमाने से,
आज ये कैसी सदा आई है मयखाने से I

कोई रिन्दाने ख़राबात से इतना पूछे,
बज़्म से उठ के वो क्यों चल दिए बेगाने से I

प्यास होठों पे लिए और नमी आँखों में,
कोई इस हाल में रुखसत न हो मयखाने से I

ज़िंदगी रूठ गई आप गए हैं जब से,
मौत भी रूठ न जाये कहीं दीवाने से I

आप रहने दें अभी होशों ख़िरद की बातें,
क्या ये दीवाने समझ जायेंगे समझाने से I

अब भी रौशन हैं ख्यालों में तसव्वुर उनका,
अब भी निस्बत है कोई शम्मा की परवाने से I

उनको ये जश्न चिरागां हो मुबारक 'दरवेश',
जो कभी शम्मा से खेले कभी परवाने से I 

अपना दिल किसको दिखलाऊं

अपना दिल किसको दिखलाऊं, इक टूटा हुआ पैमाना है I
नज़रों में है क्या बतलाऊं, मैख़ाना है मैख़ाना है I

जब तुम ही नहीं वो बात नहीं, वो बात नहीं, वो रात नहीं I
वो साज़ नहीं वो साज़ नहीं, दिल क्या है इक वीराना है I

जब शोलए हुस्न ज़रा भड़का, तब तड़पा इश्क तो क्या तड़पा I
जो शम्मा के जलने से पहले, जल जाए वो परवाना है I

रहे इश्क में खुद को मिटा डाला, घर फूंका माल लूटा डाला I
तब उसने कहा शैदा है मेरा, दुनिया ने कहा दीवाना है I

उल्फत की कहानी क्या मैं कहूँ, कोई लम्बी चौड़ी बात नहीं I
वो मेरे है, मैं उनका हूँ, दिल क्या है, इक वीराना है I

किसके क़दमों का लिया बोसा, कि ये सोज़ गले में हुआ पैदा I
'दरवेश' कलाम फकीराना, अंदाज़े बयां शाहाना है !

आँखों में उनके नूर था

आँखों में उनके नूर था चेहरा था पुर-जलाल,
इतना तो मुझको याद है, इस के सिवा नहीं I

तौबा मेरे गुनाह किया मैंने क्या नहीं,
तेरा करम बेपनाह दिया तूने क्या नहीं I

मुझ से हज़ार होंगे तेरी बज़्म में, मगर,
जिसका न तुझ सिवा हो वो मेरे सिवा नहीं I

लाज़िम है क्या कि मैं ही कहूँ अपने दिल की बात,
ज़ाहिर है मुझ पे खूब, वो तुझ से छिपा नहीं I

कहने को था कहा भी मगर कैसे अब कहूँ,
कि कैसे तुमने हाँ कहा, कैसे कहा नहीं I

क्या हाल पूछते हो दमे वस्ल-ए-हबीब,
सब्रो करार क़ल्ब को मेरे रहा नहीं I

'दरवेश' बात हो न सकी दिल में रह गई,
सुनते तो वो ज़रूर पर कहते बना नहीं I 

आग सीने में लगी है

आग सीने में लगी है मुझे जल जाने दो,
दिल के टूटे हुए तारों पे मुझे गाने दो I

ज़िंदगी अपनी कटी खूने जिगर पी पी कर,
अब ज़रा तिश्नागिये-दिल को करार आने दो I

चैन लेने नहीं देते ये जिगर और ये दिल,
पड़ गए जान के पीछे मेरी, दीवाने दो I

चश्मे साकी की कसम दैरों हरम के झगडे,
सब मिटा दूंगा ज़रा होश मुझे आने दो I 

आज आई मेरी बारी अरे तौबा तौबा

आज आई मेरी बारी अरे तौबा तौबा!
ठान ली दर्द से यारी अरे तौबा तौबा !
वो हर इक गाम पे शाहों ने किए झुक के सलाम,
हम फकीरों की सवारी, अरे तौबा तौबा !
मैं तो समझा कि ये है बात फकत मेरी बात,
बात निकली वो तुम्हारी, अरे तौबा तौबा!
बहकी बहकी हुई वो होश की बातें लब पर,
छा गई कैसी खुमारी, अरे तौबा तौबा!
हाथ मैं हाथ लिया, साथ छुड़ाया सबका,
कैसी तकदीर संवारी, अरे तौबा तौबा!
दौलते-दिल न लूट ले धोखे से रकीब,
कह दिया है ये हमारी, अरे तौबा तौबा!
रूबरू उनसे कहें हाल भला होश कहाँ,
हो गया कैफ वो तारी, अरे तौबा तौबा!
देखना मुड़ के मुझे, हाय वो कातिल नज़रें,
हो गई जान से प्यारी, अरे तौबा तौबा!
नींद बनके वो चले आए करीब और करीब,
वो भी इक रात गुज़ारी, अरे तौबा तौबा!
कर के अपना मुझे, ललकार के दुनिया से कहा,
कौन 'दरवेश' .... भिखारी अरे तौबा तौबा!